जल संसाधन Class 10 Social Science Geography Chapter 3 Water Resource Jal Sansaadhan
0HIMANSHUसितंबर 25, 2024
जल दुर्लभता और जल संरक्षण एवं प्रबंधन की आवश्यकता
जैसे ही हम जल की कमी की बात करते हैं तो हमें तत्काल ही कम वर्षा वाले क्षेत्रों या सूखाग्रस्त इलाकों का ध्यान आता है।
हमारे मानस पटल पर तुरंत राजस्थान के मरुस्थल और जल से भरे मटके संतुलित करती हुई और जल भरने के लिए लंबा रास्ता तय करती स्त्रियों के चित्र चित्रित हो जाते हैं।
यह सच है कि वर्षा में वार्षिक और मौसमी परिवर्तन के कारण जल संसाधनों की उपलब्धता में समय और स्थान के अनुसार विभिन्नता है।
ज्यादातर जल की कमी इसके अतिशोषण, अत्यधिक प्रयोग और समाज के विभिन्न वर्गों में जल के असमान वितरण के कारण होती है।
जल दुर्लभता अत्यधिक और बढ़ती जनसंख्या और उसके परिणामस्वरूप जल की बढ़ती माँग और उसके असमान वितरण का परिणाम है।
जल, अधिक जनसंख्या के लिए घरेलू उपयोग में ही नहीं बल्कि अधिक अनाज उगाने के लिए भी चाहिए।
अनाज का उत्पादन बढ़ाने के लिए जल संसाधनों का अतिशोषण करके ही सिंचित क्षेत्र बढ़ाया जा सकता है और शुष्क ऋतु में भी खेती की जा सकती है।
सिंचित कृषि में जल का सबसे ज्यादा उपयोग होता है।
शुष्क कृषि तकनीकों तथा सूखा प्रतिरोधी फसलों के विकास द्वारा अब कृषि क्षेत्र में क्रांति लाने की आवश्यकता है।
भारत में तेजी से औद्योगीकरण और शहरीकरण हुआ और विकास के अवसर प्राप्त हुए।
उद्योगों की बढ़ती हुई संख्या के कारण अलवणीय जल संसाधनों पर दबाव बढ़ रहा है।
उद्योगों को अत्यधिक जल के अलावा उनको चलाने के लिए ऊर्जा की भी आवश्यकता होती है और इसकी काफी हद तक पूर्ति जल विद्युत से होती है।
शहरों की बढ़ती संख्या और जनसंख्या के कारण न केवल जल और ऊर्जा की आवश्यकता में बढ़ोतरी हुई है अपितु इनसे संबंधित और समस्याएँ पैदा हो गई हैं।
यदि आप शहरी आवास समितियों या कालोनियों पर नजर डालें तो आप पाएँगें कि उनके अंदर जल पूर्ति के लिए नलकूप स्थापित किए गए हैं।
जल जीवन मिशन
भारत सरकार ने इसकी घोषणा करके ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के जीवन की गुणवत्ता में सुधार लाने और जीवनयापन को आसान बनाने को प्राथमिकता दी है।
लक्ष्य:- प्रत्येक ग्रामीण परिवार को लंबी अवधि के आधार पर नियमित रूप से प्रति व्यक्ति 55 लीटर के सेवा स्तर पर पीने योग्य पाइप के पानी की आपूर्ति सुनिश्चित करने में सक्षम बनाना है।
बहु-उद्देशीय नदी परियोजनाएँ और समन्वित जल संसाधन प्रबंधन
पुरातत्त्व वैज्ञानिक और ऐतिहासिक अभिलेख बताते हैं कि प्राचीन काल से सिंचाई के लिए पत्थरों और मलबे से बाँध, जलाशय अथवा झीलों के तटबंध और नहरों जैसी उत्कृष्ट जलीय कृतियाँ बनाई हैं।
परम्परागत बाँध, नदियों और वर्षा जल को इकट्ठा करके बाद में उसे खेतों की सिंचाई के लिए उपलब्ध करवाते थे।
आज कल बाँधों का उद्देश्य विद्युत उत्पादन, घरेलू और औद्योगिक उपयोग, जल आपूर्ति, बाढ़ नियंत्रण, मनोरंजन, आंतरिक नौचालन और मछली पालन भी है।
इसलिए बाँधों को बहुउद्देशीय परियोजनाएँ भी कहा जाता है जहाँ एकत्रित जल के अनेकों उपयोग समन्वित होते हैं।
उदाहरण के तौर पर सतलुज-ब्यास बेसिन में भाखड़ा नांगल परियोजना जल विद्युत उत्पादन और सिंचाई दोनों के काम में आती है।
बहुउद्देशीय परियोजनाओं को उपनिवेशन काल में बनी बाधाओं को पार करते हुए देश को विकास और समृद्धि के रास्ते पर ले जाने वाले वाहन के रूप में देखा गया।
जवाहरलाल नेहरू गर्व से बाँधों को 'आधुनिक भारत के मंदिर' कहा करते थे।
उनका मानना था कि इन परियोजनाओं के चलते कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था, औद्योगीकरण और नगरीय अर्थव्यवस्था समन्वित रूप से विकास करेगी।
बांध से नुकसान
नदियों पर बाँध बनाने और उनका बहाव नियंत्रित करने से उनका प्राकृतिक बहाव अवरुद्ध होता है, जिसके कारण तलछट बहाव कम हो जाता है और अत्यधिक तलछट जलाशय की तली पर जमा होता रहता है जिससे नदी का तल अधिक चट्टानी हो जाता है और नदी जलीय जीव-आवासों में भोजन की कमी हो जाती है।
बाँध नदियों को टुकड़ों में बाँट देते हैं जिससे विशेषकर अंडे देने की ऋतु में जलीय जीवों का नदियों में स्थानांतरण अवरुद्ध हो जाता है।
बाढ़ के मैदान में बनाए जाने वाले जलाशयों द्वारा वहाँ मौजूद वनस्पति और मिट्टियाँ जल में डूब जाती हैं जो कालांतर में अपघटित हो जाती है।
सिंचाई ने कई क्षेत्रों में फसल प्रारूप परिवर्तित कर दिया है जहाँ किसान जलगहन और वाणिज्य फसलों की ओर आकर्षित हो रहे हैं।
इससे मृदाओं के लवणीकरण जैसे गंभीर पारिस्थितिकीय परिणाम हो सकते हैं।
प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना देश के सभी कृषि खेतों के लिए सुरक्षात्मक सिंचाई के कुछ साधनों तक पहुँच सुनिश्चित करती है, जिससे वांछित ग्रामीण समृद्धि आती है
बाँध बाढ़ नियंत्रण के लिए बनाए जाते हैं उनके जलाशयों में तलछट जमा होने से वे बाढ़ आने का कारण बन जाते हैं।
अत्यधिक वर्षा होने की दशा में तो बड़े बाँध भी कई बार बाढ़ नियंत्रण में असफल रहते हैं।
इन बाढ़ों से न केवल जान और माल का नुकसान हुआ अपितु बृहत् स्तर पर मृदा अपरदन भी हुआ।
बाँध के जलाशय पर तलछट जमा होने का अर्थ यह भी है कि यह तलछट जो कि एक प्राकृतिक उर्वरक है बाढ़ के मैदानों तक नहीं पहुँचती जिसके कारण भूमि निम्नीकरण की समस्याएँ बढ़ती हैं।
बहुउद्देशीय योजनाओं के कारण भूकंप आने की संभावना भी बढ़ जाती है और अत्यधिक जल के उपयोग से जल-जनित बीमारियाँ, फसलों में कीटाणु-जनित बीमारियाँ और प्रदूषण फैलते हैं।
अटल भूजल योजना
सात राज्यों, गुजरात, हरियाणा, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान और उत्तर प्रदेश के 80 जिलों के 229 प्रशासनिक ब्लॉकों तालुकाओं की 8220 जल की कमी वाले ग्राम पंचायतों में कार्यान्वित किया जा रहा है।
चुने गए राज्यों में जल की कमी (अति दौहित, गंभीर और अर्ध-गंभीर) ब्लॉकों की कुल संख्या का लगभग 37 प्रतिशत हिस्सा है।
अटल जल के प्रमुख पहलुओं में से एक पहलू जलसंरक्षण और विवेकपूर्ण जल प्रबंधन में जल के उपयोग के मौजूदा रवैये के प्रति जनता के व्यवहार में परिवर्तन लाना है।
प्राचीन भारत में जलीय कृतियाँ
ईसा से एक शताब्दी पहले इलाहाबाद के नजदीक श्रिगंवेरा में गंगा नदी की बाढ़ के जल को संरक्षित करने के लिए एक उत्कृष्ट जल संग्रहण तंत्र बनाया गया था।
चन्द्रगुप्त मौर्य के समय बृहत् स्तर पर बाँध, झील और सिंचाई तंत्रों का निर्माण करवाया गया।
कलिंग (ओडिशा), नागार्जुनकोंडा (आंध्र प्रदेश) बेन्नूर (कर्नाटक) और कोल्हापुर (महाराष्ट्र) में उत्कृष्ट सिंचाई तंत्र होने के सबूत मिलते हैं।
अपने समय की सबसे बड़ी कृत्रिम झीलों में से एक, भोपाल झील, 11वीं शताब्दी में बनाई गई।
14वीं शताब्दी में इल्तुतमिश ने दिल्ली में सिरी फोर्ट क्षेत्र में जल की सप्लाई के लिए हौज खास (एक विशिष्ट तालाब) बनवाया।
कृष्णा-गोदावरी विवाद
विवाद की शुरुआत महाराष्ट्र सरकार द्वारा कोयना पर जल विद्युत परियोजना के लिए बाँध बनाकर जल की दिशा परिवर्तन कर कर्नाटक और आंध्र प्रदेश सरकारों द्वारा आपत्ति जताए जाने से हुई।
इससे इन राज्यों में पड़ने वाले नदी के निचले हिस्सों में जल प्रवाह कम हो जाएगा और कृषि और उद्योग पर विपरीत असर पड़ेगा।
प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना
उद्देश्य:
खेत में पानी की वास्तविक उपलब्धता को बढ़ाना
सुनिश्चित सिंचाई के तहत बुवाई योग्य क्षेत्र का विस्तार करना,
अपव्यय को कम करना
उपलब्धता बढ़ाने के लिए खेत में पानी के उपयोग की दक्षता में सुधार करना
सिंचाई और अन्य जल बचत प्रौद्योगिकियाँ अपनाना
सतत जल संरक्षण प्रणालियों का अपनाना आदि।
सरदार सरोवर-बाँध
सरदार सरोवर-बाँध गुजरात में नर्मदा नदी पर बनाया गया है।
यह भारत की एक बड़ी जल संसाधन परियोजना है जिसमें चार राज्य - महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, गुजरात तथा राजस्थान सम्मिलित हैं।
सरदार सरोवर परियोजना सूखा ग्रस्त तथा मरुस्थलीय भागों की जल को आवश्यकता को पूरा करेगी।
सरदार सरोवर परियोजना गुजरात के 15 जिलों के 3112 गांवों की 18.45 लाख हेक्टेयर क्षेत्र को सिंचाई सुविधा प्रदान करेगी।
इससे राजस्थान के सामरिक महत्व के रेगिस्तानी जिलों बाड़मेर और जालौर के 2,46,000 हेक्टेयर की सिंचाई भी होगी तथा महाराष्ट्र के आदिवासी पहाड़ी इलाके में लिफ्ट के माध्यम से 37,500 हेक्टेयर भूमि की सिंचाई होगी।
गुजरात में लगभग 75 प्रतिशत कमांड क्षेत्र सूखा प्रवण है जबकि राजस्थान में संपूर्ण कमांड क्षेत्र सूखा प्रवण है।
सुनिश्चित जल की उपलब्धता जल्द ही इस क्षेत्र को सूखारोधी बना देगी।
वर्षा जल संग्रहण
बहुउद्देशीय परियोजनाओं पर उठे विवादों के चलते वर्षाजल संग्रहण इसके व्यावहारिक विकल्प हो सकते हैं।
प्राचीन भारत में उत्कृष्ट जलीय निर्माणों के साथ-साथ जल संग्रहण ढाँचे भी पाए जाते थे।
लोगों को वर्षा पद्धति और मृदा के गुणों के बारे में गहरा ज्ञान था।
उन्होंने स्थानीय पारिस्थितिकीय परिस्थितियों और उनकी जल आवश्यकतानुसार वर्षाजल, भौमजल, नदी जल और बाढ़ जल संग्रहण के अनेक तरीके विकसित कर लिए थे।
पहाड़ी और पर्वतीय क्षेत्रों में लोगों ने 'गुल' अथवा 'कुल' (पश्चिमी हिमालय) जैसी वाहिकाएँ, नदों की धारा का रास्ता बदलकर खेतों में सिंचाई के लिए बनाई हैं।
पश्चिमी भारत, विशेषकर राजस्थान में पौने का जल एकत्रित करने के लिए 'छत वर्षा जल संग्रहण' का तरीका आम था।
पश्चिम बंगाल में बाढ़ के मैदान में लोग अपने खेतों की सिंचाई के लिए बाढ़ जल वाहिकाएँ बनाते थे।
शुष्क और अर्धशुष्क क्षेत्रों में खेतों में वर्षा जल एकत्रित करने के लिए गड्ढे बनाए जाते थे ताकि मृदा को सिंचित किया जा सके और संरक्षित जल को खेती के लिए उपयोग में लाया जा सके।
राजस्थान के जिले जैसलमेर में 'खादीन' और अन्य क्षेत्रों में 'जोहड़' इसके उदाहरण हैं।
राजस्थान के अर्ध-शुष्क और शुष्क क्षेत्रों विशेषकर बीकानेर, फलोदी और बाड़मेर में, लगभग हर घर में पीने का पानी संग्रहित करने के लिए भूमिगत टैंक अथवा 'टाँका' हुआ करते थे।
इसका आकार एक बड़े कमरे जितना हो सकता है।
फलोदी में एक घर में 6.1 मीटर गहरा, 4.27 मीटर लंबा और 2.44 मीटर चौड़ा टाँका था।
टांका यहाँ सुविकसित छत वर्षाजल संग्रहण तंत्र का अभिन्न हिस्सा होता है जिसे मुख्य घर या आँगन में बनाया जाता था। वे घरों की ढलवाँ छतों से पाइप द्वारा जुड़े हुए थे।
छत से वर्षा का पानी इन नलों से होकर भूमिगत टाँका तक पहुँचता था जहाँ इसे एकत्रित किया जाता था।
वर्षा का पहला जल संग्रहित नहीं किया जाता था। इसके बाद होने वाली वर्षा का जल संग्रह किया जाता था।
यह इसे जल की कमी वाली ग्रीष्म ऋतु तक पीने का जल उपलब्ध करवाने वाला जल स्रोत बनाता है।
वर्षाजल अथवा 'पालर पानी' जैसा कि इसे इन क्षेत्रों में पुकारा जाता है, प्राकृतिक जल का शुद्धतम रूप समझा जाता है।
कुछ घरों में तो टाँको के साथ भूमिगत कमरे भी बनाए जाते हैं क्योंकि जल का यह स्रोत इन कमरों को भी ठंडा रखता था जिससे ग्रीष्म ऋतु में गर्मी से राहत मिलती है।
पश्चिमी राजस्थान में छत वर्षाजल संग्रहण की रीति इंदिरा गांधी नहर से उपलब्ध बारहमासी पेयजल के कारण कम होती जा रही है।
कुछ घरों में टाँकों की सुविधा अभी भी है क्योंकि उन्हें नल के पानी का स्वाद पसन्द नहीं है।
आज भी भारत के कई ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में जल संरक्षण और संग्रहण का यह तरीका प्रयोग में लाया जा रहा है।
कर्नाटक के मैसूरु जिले में स्थित एक सूदूर गाँव गंडाचूर में ग्रामीणों ने अपने घर में जल आवश्यकता पूर्ति छत वर्षाजल संग्रहण की व्यवस्था की हुई है।
गाँव के लगभग 200 घरों में यह व्यवस्था है और इस गाँव ने वर्षा जल संपन्न गाँव की ख्याति अर्जित की है।
इस गाँव में हर वर्ष लगभग 1,000 मिलीमीटर वर्षा होती है और 10 भराई के साथ यहाँ संग्रहण दक्षता 80 प्रतिशत है।
यहाँ हर घर लगभग प्रत्येक वर्ष 50,000 मीटर जल का संग्रह और उपयोग कर सकता है।
200 घरों द्वारा हर वर्ष लगभग 1000,000 लीटर जल एकत्रित किया जाता है।
बाँस ड्रिप सिंचाई प्रणाली
मेघालय में यह 200 वर्ष पुरानी विधि प्रचलित है।
इसमे नदियों व झरनों के जल को बाँस द्वारा बने पाइप द्वारा एकत्रित करके सैकड़ों मीटर की दूरी तक ले जाया जाता है।
अंत में पानी का बहाव 20 से 80 बूँद प्रति मिनट तक घटाकर पौधे पर छोड़ दिया जाता है।
तमिलनाडु एक ऐसा राज्य है जहाँ पूरे राज्य में हर घर में छत वर्षाजल संग्रहण ढाँचों का बनाना आवश्यक कर दिया गया है।
इस संदर्भ में दोषी व्यक्तियों पर कानूनी कार्यवाही हो सकती है।मेघालय की राजधानी शिलांग में छत वर्षाजल संग्रहण प्रचलित है।
यह रोचक इसलिए है क्योंकि चेरापूँजी और माँसिनराम जहाँ विश्व की सबसे अधिक वर्षा होती है, शिलांग से 55 किलोमीटर की दूरी पर ही स्थित है और यह शहर पीने के जल की कमी की गंभीर समस्या का सामना करता है।
शहर के लगभग हर घर में छत वर्षा जल संग्रहण की व्यवस्था है।
घरेलू जल आवश्यकता की कुल माँग के लगभग 15-25 प्रतिशत हिस्से की पूर्ति छत जल संग्रहण व्यवस्था से ही होती है।